पहले चरण की 121 सीटों पर शुक्रवार को मतदान संपन्न हो गया और इस बार राज्य ने रिकॉर्ड तोड़ वोटिंग के साथ सभी राजनीतिक दलों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। चुनाव आयोग के अनुसार, इस चरण में औसतन 64.46% वोटिंग हुई है, जो 2020 के मुकाबले करीब 8 प्रतिशत अधिक है। दिलचस्प यह है कि पिछले तीन चुनावों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो जब भी बिहार में मतदान में 5% से ज्यादा का उछाल दर्ज हुआ है, राज्य में सत्ता परिवर्तन देखने को मिला है।
इस बार बढ़ी हुई वोटिंग को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं का दौर तेज है। आंकड़ों के हिसाब से गया, औरंगाबाद, कैमूर, भोजपुर और रोहतास जैसे जिलों में सबसे ज्यादा मतदान हुआ है, जबकि पटना शहरी सीटों पर अपेक्षाकृत कम वोटिंग दर्ज की गई। महिलाओं और युवाओं की भागीदारी भी इस बार उल्लेखनीय रही — कई बूथों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक रही।
विश्लेषकों का कहना है कि आमतौर पर अधिक मतदान सत्ता-विरोधी लहर का संकेत माना जाता है। यानी यह एनडीए के लिए टेंशन का कारण हो सकता है। पिछली बार 2020 के चुनाव में कुल मतदान 57.09% रहा था और एनडीए ने सीमित अंतर से जीत दर्ज की थी। इस बार 8% की बढ़ोतरी यह संकेत दे रही है कि मतदाता बदलाव का मूड बना चुके हैं।
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि बढ़ी हुई वोटिंग को सिर्फ सत्ता-विरोध से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। बिहार में इस बार पहली बार वोट डालने वाले 20 लाख से ज्यादा युवा मतदाता हैं, जिनकी सक्रियता से भी मतदान प्रतिशत बढ़ा है। इसके अलावा, चुनाव आयोग के बेहतर प्रबंधन और डिजिटल प्रचार के प्रभाव से भी मतदान में वृद्धि हुई है।
राजनीतिक रणनीतिकारों की नजर इस बात पर है कि यह उच्च मतदान ग्रामीण इलाकों की नाराजगी को दर्शाता है या विपक्ष के पक्ष में आई लहर को। महागठबंधन की ओर से दावा किया जा रहा है कि जनता ने “परिवर्तन” के लिए मतदान किया है, जबकि एनडीए का कहना है कि यह उनकी योजनाओं पर लोगों के भरोसे का परिणाम है।
अब सभी की निगाहें दूसरे चरण की वोटिंग पर टिकी हैं। अगर यही रुझान आगे भी जारी रहा, तो यह बिहार की सियासत में बड़ा उलटफेर कर सकता है। आने वाले नतीजे तय करेंगे कि यह 8% का इजाफा आखिर जनता के गुस्से का संकेत है या सरकार के प्रति विश्वास का प्रमाण।