बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि जेल की सजा किसी व्यक्ति से आगे की शिक्षा हासिल करने का अधिकार नहीं छीनती। जेल में बंद व्यक्ति को आगे की पढ़ाई करने का मौका नहीं देना उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
उच्च न्यायालय ने भीमा-कोरेगांव मामले में आरोपी महेश राउत को विधि कोर्स में दाखिला लेने की इजाजत देते हुए यह टिप्पणी की। न्यायमूर्ति एएस गडकरी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ जून 2018 में गिरफ्तार किए गए महेश राउत की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
याचिका में महेश ने मुंबई विश्वविद्यालय को सिद्धार्थ कालेज आफ ला में शैक्षणिक सत्र 2024-27 में उसे विधि कोर्स में दाखिला देने का निर्देश देने का अनुरोध किया था। महेश के वकील मिहिर देसाई ने अदालत को बताया कि उनके मुवक्किल को वर्ष 2023 में जमानत दी गई थी, लेकिन वह जेल से बाहर नहीं आ सका, क्योंकि अभियोजन पक्ष ने जमानत आदेश को चुनौती दी थी। उच्चतम न्यायालय ने जमानत आदेश पर रोक लगा दी थी, जो आज भी बरकरार है। वहीं, मुंबई विश्वविद्यालय और सिद्धार्थ कालेज आफ ला की ओर से महेश राउत की याचिका का विरोध किया गया।
उनकी दलील थी कि विधि पाठ्यक्रम एक पेशेवर कोर्स है, जिसमें अभ्यर्थी की 75 फीसदी हाजिरी होना अनिवार्य है और महेश इस शर्त को जाहिर तौर पर पूरा नहीं कर पाएगा। इस पर उच्च न्यायालय ने कहा कि जब महेश ने सामान्य प्रवेश परीक्षा (सीइटी) में बैठने की अनुमति मांगी थी, तब किसी ने इसका विरोध नहीं किया था। इस परीक्षा में बैठने का मकसद निश्चित रूप से विधि कोर्स में दाखिला लेना था।
उच्च न्यायालय ने कहा कि जेल की सजा किसी व्यक्ति के आगे की शिक्षा हासिल करने के अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लगाती है। सीट आबंटन के बावजूद कालेज में दाखिला लेने की इजाजत न देना याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। उच्च न्यायालय ने कहा, चूंकि कालेज दस्तावेजों के सत्यापन के लिए अभ्यर्थी की भौतिक उपस्थिति को अनिवार्य करता है।